“शारीरिक शिक्षा का जैविक आधार”

"शारीरिक शिक्षा का जैविक आधार"

“शारीरिक शिक्षा का जैविक आधार”

भूमिका_ जीव विज्ञान पृथ्वी पर जीवनक्रम के अध्ययन का दूसरा नाम है।

जीव विज्ञान के अनुसार मानव को जीवन सोपान का सर्वोच्च स्तर माना गया है।

दूसरी बात यह भी है कि इस शिखर पर पहुंचने के लिए मानव को भिन्न-भिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है।

शेष जीवों की भांति मानव की भी एक जैविक सत्ता है, इसका एक श्रमिक इतिहास है।

अतः हमारी आज की चर्चा इसी परिपेक्ष्य में होने वाली है-

मनुष्य की जीवन लीला गर्भाधान के समय से प्रारंभ हो जाती है।कितनी विचित्र सी बात लगती है कि एक छोटे से निश्चित अंडे से धीरे-धीरे बढ़ते हुए,
कई अवस्थाओं से गुजरते हुए वह निश्चित अंडा एक संपूर्ण मानव का रूप धारण कर लेता है।
मनुष्य का जैविक आधार दो बातों पर निर्भर करता है। पहला उसने अपने माता-पिता से अनुवांशिकता में क्या पाया है मजबूत ढांचा ,निरोगी शरीर।
दूसरा उसका पर्यावरण किस प्रकार का है कि, उस अनुवांशिकता में मिले सुदृढ़ ढांचे को कैसे बढ़ाता, ढालता और पोषित करता है।
यदि इस ढांचे को सावधानी पूर्वक पोषित नहीं किया गया तो धीरे-धीरे घटकर वह बेजान हो जाएगा।
आज के इस मशीनी युग में अपनी जैविक स्थिति बनाए रखने के लिए अपने को फिट रखने की आवश्यकता है।
शारीरिक क्रियाकलाप फिट रखने के साथ उसे भावनात्मक एवं सामाजिक रूप से भी मजबूत बनाते हैं।
आधुनिक सभ्यता में कृत्रिम परस्थितियों में रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक ,मानसिक ह्मस हुआ है।

वृद्धि एवं विकास:-

साधारणतया वृद्धि एवं विकास को एक ही तरह से प्रयुक्त किया जाता है किंतु यह सत्य नहीं है।

वृद्धि विकास का एक पहलू है। विकास जीवन के पहले दिन से लेकर अंतिम समय तक होता रहता है।
जबकि वृद्धि एक विशेष अवधि में ही होती है।

वृद्धि- वृद्धि उस प्रक्रिया से संबंधित है जिसके माध्यम से शरीर का डील -डौल और आकार बढ़ता है।

विकास- विकास शब्द उन्नति से जुड़ा है।और परिपक्वता की ओर प्रगतिशील बदलाव है।

विकास एक तथ्य है जिसे वृद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।
वृद्धि और विकास दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।

हालांकि वृद्धि एक सीमा के बाद समाप्त हो जाती है जबकि विकास जीवन पर्यंत चलता रहता है।

वृद्धि तथा विकास के संबंध में मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन से पता चलता है कि वृद्धि एवं विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित सिद्धांतों पर चलती है।

जो मानव विकास क्रम के सामान्यकृत सूत्र या विकास के सिद्धांत कहलाते हैं।
गैरिसन एवं अन्य कहते हैं- “जब बालक विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में प्रवेश करता है तब हम उसमें कुछ परिवर्तन देखेते हैं।अध्ययनों ने यह सिद्ध कर दिया यह परिवर्तन निश्चित सिद्धांतों के अनुसार होते हैं।इन्हीं को विकास का सिद्धांत कहा जाता है।”
मनुष्य चाहे एक कोशिकीय जीव अथवा वह एक जटिल बहुकोशिकीय जीव है,
उसमें क्रिया सदैव ही विद्यमान रहती है।

जिस समय किसी जीव में चलने- फिरने ,दौड़ने- भाग आदि की शक्ति समाप्त हो जाती है तो वह सजीव से अजीव बन जाता है।

क्रिया जीवन का चिन्ह और लक्ष्य है और स्थिरता मृत्यु और अजीवता है ।

कहा जाता है कि किसी प्राणी में जितनी तेज क्रिया करने की क्षमता होती है उतनी ही शीघ्रता से उसमें वृद्धि व विकास की संभावना होती है,
यदि उस प्राणी को दूसरी सामग्री जैसे पौष्टिक आहार, अच्छा वातावरण आदि ठीक-ढंग से उपलब्ध होती रहें।

इसे प्रकृति का एक अद्भुत चमत्कार ही कहना चाहिए कि जैसे ही निषेचन (फर्टिलाइजेशन ) होता है।
तो युक्त (जायगोट) के रूप में एक नए जीवन की आधारशिला रखी जाती है।
उसी समय से एक मनुष्य के बनने की क्रिया आरंभ हो जाती है।
जैसे ही व्यक्ति में क्रिया की मात्रा बढ़ती जाती है तो भिन्न-भिन्न कोशिकाओं का अस्तित्व बनता जाता है इससे यह बात सिद्ध हो जाती है कि क्रिया तो प्राणी के बीज -कोष में भी विद्यमान रहती है तथा वृद्धि और विकास क्रिया का एक परिणाम है।

यदि प्राणी में प्रारंभ से क्रिया नहीं होती तो न तो उसके जीवन का और न ही उसके वृद्धि और विकास का ही कोई प्रश्न उठता।
अर्थात क्रिया के बिना मानव शरीर की वृद्धि और विकास संभव नहीं है।

संक्षेप में –
हम कह सकते हैं कि मनुष्य के अस्तित्व का आधार उसका शरीर ही है तथा इस संसार में जब तक वह जीवित रहता है वह अपने शरीर की प्रक्रियाओं के कारण अपनी लक्ष्य सिद्धि करता है

और जीव विज्ञान ने इस शरीर के विषय में कई अद्भुत खोजों से हमें अवगत कराया है इन्हीं अद्भुत खोजों से प्राप्त तथ्यों के आधार पर बने सिद्धांतों को हम शारीरिक शिक्षा की नींव के महत्वपूर्ण तथ्य मानते हैं ।
जीव विज्ञान पर आधारित सिद्धांत ही हमें मनुष्य की शारीरिक योग्यताओं और शारीरिक सीमाओं को समझने और समझाने में बड़ा योगदान देते हैं।