नमस्कार दोस्तो, राजा ने कहा रात है, रानी ने कहा रात है, मंत्री ने कहा रात है ये सुबह सुबह की बात है। ये कहावत आपने सुनी होगी लेकिन इस कहावत को आज़ इस तरह भी कह सकते हैं कि सरकार ने कहा रात है, गोदी मीडिया ने कहा रात है, भक्तों ने भी कहा रात है, ये हर दिन की बात है।
आखिर अधिकांश लोगों की अक्ल क्या घास चरने चली गई ? क्या पढ़े लिखे रिटायर्ड अंकल व युवा, तथाकथित बुद्धिजीवी भी स्मार्टफोन फोन पर अपने अपने हिसाब से मैसेज फार्वड करने के अलावा कुछ सोचने की क्षमता खो चुके हैं ? क्यों ? कैसे ? और कब ?जनता को विभिन्न हिस्सों में बांट दिया गया और हम बट गए हमें पता तक नहीं चला । और ये काम आज़ भी सतत् चालू है इसी को कहते हैं फूट डालो और राज करो।
कहीं युवाओं का आन्दोलन है,कही सरकारी कर्मचारियों का आन्दोलन है,कही मजदूरों का आन्दोलन है और कहीं किसानों का आन्दोलन है। लेकिन इसके बावजूद हमारी फूट का फायदा उठाकर हमें बताया जाता है कि सब चंगा सी।
हमारा देश कृषि प्रधान देश है जिसकी आधी से अधिक आबादी कृषि पर आधारित है १५ करोड़ किसान परिवार है तो कमोबेश इतने ही परिवार इस काम में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं। लोकडाउन में जब देश ने -23% का गोता लगाया था उस वक्त भी हमारे कृषि की ग्रोथ ने क़रीब 4% की वृद्धि दर हासिल की थी । ये है महानता हमारे किसानों की।
विश्व की महान क्रांतियों में फ्रास,रुस की क्रांति के जनक भी किसान थे। देश में भी पाबना आन्दोलन, दक्कन का आन्दोलन, चम्पारण का आन्दोलन, खेड़ा सत्याग्रह, बारदौली सत्याग्रह, सीतापुर आन्दोलन आदि सभी किसानों के आन्दोलन थें।
देश की आजादी के बाद भी 1970 में महाराष्ट्र में किसान आंदोलन 1980 में कर्नाटक 1984 में पंजाब 1988 में वोट क्लब आन्दोलन 2007 में बंगाल नन्दी ग्राम आन्दोलन, और 2022 में दिल्ली की सीमाओं पर 13 महीनों का आन्दोलन बड़े आन्दोलन मानें जातें हैं।
कोई भी वर्ग हो वो एक सीमा तक बर्दाश्त करता है उसके बाद वो आन्दोलन कहें या विरोध उस रास्ते पर चल पड़ता है। किसान एक ऐसी ताकत है जिसने बड़े बड़े सूरमाओं को उखाड़ फेका है। जिनके राज़ में सूर्य अस्त नहीं होता था ऐसे राज़ से भिड़कर भी किसान ने उसे नतमस्तक किया था।
आज देश आजाद है लोकतांत्रिक व्यवस्था है सूचना की क्रांति का दौर है। विश्व की हर जानकारी पल भर में मिल जाती है ऐसे दौर में किसानों को बहकाना, बेवकूफ समझने की गलती करना, उन्हें दबाना कठिन है। किसान अपनी ताक़त व अहमियत समझाते हैं तभी वो अपने लिए कुछ मांगे लेकर खडा हो गया है जिससे अब वो पीछे हटने को तैयार नहीं।
देश में कोई भी सामान एम आर पी पर बिकता है जिसकी क़ीमत उत्पादन कर्ता खुद तय करता है सब खरीदते हैं कोई नहीं पूछता या एतराज करता कि इतना दाम क्यों ? लेकिन किसान की फ़सल का दाम सरकार तय करती है किसान बरसों से इसे भी मान्य करता आया है।
2014 में किसान की आय 8058 रू के आसपास हुआ करती थी। उस समय खुले मंच से कहा गया कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करेंगे। एम एस पी को कानूनी जामा पहनाया जाएगा। स्वामी नाथन की सिफारिशे लागू की जाएगी। सबके सर पर पक्की छत होगी, वगैरा वगैरा ये सब नैट पर मौजूद है।
लेकिन उसे तब दुःख होता है जब न्यूनतम समर्थन मूल्य भी उसकी हथेली पर नहीं रखा जाता है। कम दामों में पूंजीपति उनकी फ़सल खरीदकर दोगुनी कीमतों तक पर बेच कर अकूत संपत्ति बनाते हैं। और इस महंगाई के दौर में किसान की औसत आय मात्रा 27 रूपए है।
2019 में कहा गया कि हमें देश के गड्ढे भरने में समय लग गया अतः इस योजना में सब वायदे पूरे कर दिए जाएंगे। हर वर्ग से जो वादे किए गए उनको अगर एक बार पुनः वायदे करने वालें को सुना दिए जाएंगे तो शाय़द वो ना सुन पाए।
किसानो से 2022 में जो वादे किए थे उनपर भी सरकार कुन्डी लगाकर सो गई अब किसान जगाने आया तो बहाने बाजी, कील कांटे, तार बन्दी, ड्रोन से एक्सपायरी डेट के आंसुगैस के गोले, रबर की गोलियां, और ना जाने क्या किया जा रहा है।
सरकार एम एस पी पर तर्क़ देती है कि सरकार पर 17 लाख करोड़ तो कभी 11 लाख करोड़ के खर्चे की बात करती है। किसान का तर्क़ है कि ये आंकड़ा कहा से आया ?
दूसरे हम नहीं कहते कि सभी खरीददारी सरकार करे।
तीसरे यदि सरकार खरीदी करती है तो क्या उसे समुद्र में बहाएगी ? या फिर आग लगाएंगी ? वो जरूरत का इस्तेमाल करे बाकी को बेचें। बस यही पेंच फंसा है , दरअसल किसानों की जो फ़सल पूंजीपति लोग खरीदते हैं उसमें करीब डेढ से दो लाख करोड़ की कमाई का खेल है। और पूंजी पति नहीं चाहते कि सरकार उनका रास्ता रोके चूंकि किसान तो चन्दा देता नहीं और अगर ये व्यापार बन्द हुआ तो वो भी चन्दा नहीं मिलेगा तो नेताओं की मौज मस्ती कैसे चलेगी।
देश में आधे से ज्यादा किसान सीमान्त किसान है वो तो अपनी फसलों का 70 फीसदी इस्तेमाल खुद ही कर लेते हैं। फ़सल का बहुत छोटा भाग ही बेचते हैं। दूसरी तरफ कुछ ही किसान है जो पांच एकड़ या उससे अधिक जमीन पर खेती करते हैं अब सरकार इन्हें भी बांटकर कहती हैं कि ये बड़े किसानों का आन्दोलन है।
मुझे नहीं लगता कि सरकार किसान आंदोलन को दबा पाएगी जितना दबाने का प्रयास करेगी ये उतना ही विस्तार करेगा। अतः सरकार को चाहिए कि वो किसानों के साथ बैठकर बात कर उनकी मांग मानें अन्यथा रार बढ़ेगी जो देश के लिए अच्छी नहीं होगी।