“प्राकृतिक आपदा”

"प्राकृतिक आपदा"

“प्राकृतिक आपदा”
भूमिका- आपदा प्राय: अनपेक्षित घटना होती है, जो ऐसी ताकतों द्वारा घटित होती है जो मानव के नियंत्रण में नहीं हैं। यह थोड़े समय में और बिना चेतावनी के घटित होती है जिसकी वजह से मानव जीवन के क्रियाकलाप अवरुद्ध होते हैं तथा बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान होता है। अतः इससे निपटने के लिए हमें समान्यत: दी जाने वाली वैधानिक आपातकालीन सेवाओं की अपेक्षा अधिक प्रयत्न करने पड़ते हैं। यहां हम कुछ ऐसे परिवर्तनों को समझने की कोशिश करेंगे जो बुरे माने जाते हैं और जो बहुत लंबे समय से मानव को भयभीत किए हुए हैं सामान्यतः आपदा और विशेष रूपए से प्राकृतिक आपदाओं से मानव हमेशा भयभीत रहा है अतः हमारी आज की चर्चा इसी परिप्रेक्ष्य में होने वाली है-

आपने सुनामी के बारे में पढ़ा होगा या उसके प्रकोप की तस्वीरें टेलीविजन पर देखीं होंगी। आपको कश्मीर में नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ आए भयावह भूकंप की जानकारी भी होगी। इन आपदाओं से होने वाले जान और माल के नुकसान ने हमें हिला कर रख दिया था। ये परिघटनाओं के रूप में क्या हैं और कैसे घटती हैं ?हम इनसे अपने आप को कैसे बचा सकते हैं? ये कुछ सवाल हैं,जो हमारे दिमाग में आते हैं। यहां हम इन्हीं सवालों का विश्लेषण करने की कोशिश करेंगे।

परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है, जो विभिन्न तत्वों में, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, पदार्थ हो या अपदार्थ, अनवरत चलती रहती है तथा हमारे प्राकृतिक और सामाजिक- सांस्कृतिक पर्यावरण को प्रभावित करती है। यह प्रक्रिया हर जगह व्याप्त है परंतु इसके परिमाण ,सघनता और पैमाने में अंतर होता है। ये बदलाव धीमी गति से भी आ सकते हैं, जैसे स्थलाकृतियों और जीवों में। ये बदलाव तेज गति से भी आ सकते हैं, जैसे ज्वालामुखी विस्फोट, सुनामी ,भूकंप और तूफान इत्यादि।

इसी प्रकार इसका प्रभाव छोटे क्षेत्र तक सीमित हो सकता है, जैसे-आंधी, करकापात और टॉरनेडो और इतना व्यापक हो सकता है, जैसे-भूमंडलीय ऊष्णीकरण और ओजोन परत का ह्रास।

इसके अतिरिक्त परिवर्तन का विभिन्न लोगों के लिए भिन्न-भिन्न अर्थ होता है।यह इनको समझने की कोशिश करने वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। प्रकृति के दृष्टिकोण से परिवर्तन- मूल्य तटस्त होता है, ( न अच्छा होता है, और न बुरा) परंतु मानव दृष्टिकोण से परिवर्तन मूल्य बोझिल होता है। कुछ परिवर्तन अपेक्षित और अच्छे होते हैं, जैसे ऋतुओं में परिवर्तन, फलों का पकना आदि जबकि कुछ परिवर्तन अनपेक्षित और बुरे होते हैं, जैसे भूकंप ,बाढ़ और युद्ध।

लंबे समय तक भौगोलिक साहित्य में आपदाओं को प्राकृतिक बलों का परिणाम माना जाता रहा और मानव को इनका अबोध एवं असहाय शिकार। परंतु प्राकृतिक बल ही आपदाओं की एकमात्र कारक नहीं हैं। आपदाओं की उत्पत्ति का संबंध मानव क्रियाकलापों से भी है। कुछ मानवीय गतिविधियां तो सीधे रूप से इन आपदाओं के लिए उत्तरदायी हैं। भोपाल गैस त्रासदी, चेरनोबिल नाभिकीय आपदा, युद्ध, सी एफ सी (क्लोरोफ्लोरोकार्बन) गैसें वायुमंडल में छोड़ना तथा ग्रीन हाउस गैसें, ध्वनि, वायु, जल तथा मिट्टी संबंधी पर्यावरण प्रदूषण आदि आपदाएं इसके उदाहरण हैं। कुछ मानवीय गतिविधियां परोक्ष रूप से भी आपदाओं को बढ़ावा देती हैं। वनों को काटने की वजह से भू-स्खलन और बाढ़, भंगुर जमीन पर निर्माण कार्य और वैज्ञानिक भूमि उपयोग कुछ उदाहरण हैं, जिनकी वजह से आपदा परोक्ष रूप से प्रभावित होती है।

क्या आप अपने पड़ोस या विद्यालय के आस-पास चल रही गतिविधियों की पहचान कर सकते हैं जिनकी वजह से भविष्य में आपदाएं आ सकती हैं? क्या आप इनसे बचाव के लिए सुझाव दे सकते हैं?यह सर्वमान्य है कि पिछले कुछ सालों से मानवकृत आपदाओं की संख्या और परिमाण दोनों में ही वृद्धि हुई है और कई स्तर पर ऐसी घटनाओं से बचने के भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं। यद्यपि इस संदर्भ में अब तक सफलता नाम मात्र ही हाथ लगी है,परंतु इन मानवकृत आपदाओं में से कुछ का निवारण संभव है।

इसके विपरीत प्राकृतिक आपदाओं पर रोक लगाने की संभावना बहुत कम है इसलिए सबसे अच्छा तरीका है इनके असर को कम करना और इनका प्रबंध करना इस दिशा में विभिन्न स्तरों पर कई प्रकार के ठोस कदम उठाए गए हैं जिनमें भारतीय आपदा प्रबंधन संस्थान‌ की स्थापना, 1993 में रियो डि जेनेरो, ब्राजील में भू -शिखर सम्मेलन( अर्थ सम्मिट) और मई 1994 में याकोहामा, जापान में आपदा प्रबंधन पर विश्व संगोष्ठी आदि ,विभिन्न स्तरों पर इस दिशा में उठाए जाने वाले
ठोस कदम हैं।

प्राय: यह देखा गया है कि विद्वान आपदा और प्राकृतिक संकट शब्दों का इस्तेमाल एक दूसरे की जगह कर लेते हैं। यह दोनों एक दूसरे से संबंधित है परंतु फिर भी इनमें अंतर है। इसलिए इन दोनों में भेद करना आवश्यक है। प्राकृतिक संकट,प्राकृतिक पर्यावरण में हालात के वे तत्व है जिसे धन-जन या दोनों को नुकसान पहुंचने की संभावना होती है। यह बहुत तीव्र हो सकते हैं या पर्यावरण विशेष के स्थाई पक्ष भी हो सकते हैं, जैसे महासागरीय धाराएं ,हिमालय में तीव्र ढाल तथा अस्थिर संरचनात्मक आकृतियां अथवा रेगिस्तानों तथा हिमाच्छादित क्षेत्रों में विषम जलवायु दशाएं आदि।

प्राकृतिक संकट की तुलना में प्राकृतिक आपदाएं अपेक्षाकृत तीव्रता से घटित होती हैं तथा बड़े पैमाने पर जन- धन की हानि तथा सामाजिक तंत्र एवं जीवन को छिन्न भिन्न कर देती हैं तथा उन पर लोगों का बहुत कम या कुछ भी नियंत्रण नहीं होता।

अब यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्राकृतिक आपदाओं एवं संकटों के अवगम में परिवर्तन भी आया है। पहले प्राकृतिक आपदा एवं संकट दो परस्पर अंतर्संबंधी परिघटनाएं समझी जाती थी अर्थात जिन क्षेत्रों में प्राकृतिक संकट आते थे, वे आपदाओं के द्वारा भी सुभेध थे।अत उस समय मानव पारिस्थितिक तंत्र के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं करता था। इसलिए इन आपदाओं से नुकसान कम होता था।तकनीकी विकास में मानव को ,पर्यावरण को प्रभावित करने की बहुत क्षमता प्रदान कर दी है।परिणामत: मनुष्य ने आपदा के खतरे वाले क्षेत्रों में गहन क्रियाकलाप शुरू कर दिया है और इस प्रकार आपदाओं की सुभेधता को बढ़ा दिया है। अधिकांश नदियों के बाढ़- मैदानों में भू -उपयोग तथा भूमि की कीमतों के कारण तथा तटों पर बड़े नगरों एवं बंदरगाहों, जैसे- मुंबई तथा चेन्नई आदि के विकास ने इन क्षेत्रों को चक्रवातों, प्रभजनों तथा सुनामी आदि के लिए शुभेध बना दिया है।

संक्षेप में-
हम कह सकते हैं कि प्राकृतिक आपदाओं ने विस्तृत रूप से जन- धन की हानी की है।इस स्थिति से निपटने के लिए भरसक प्रयत्न किए जा रहे हैं,
विश्व भर में लोग विभिन्न प्रकार के आपदाओं को अनुभव करते हैं और उनका सामना करते हुए इन्हे सहन करते हैं ।अब लोग इसके बारे में जागरूक हैं और इससे होने वाले नुकसान को कम करने की चेष्टा में कार्यरत हैं ।उनके प्रभाव को कम करने के लिए विभिन्न स्तर पर विभिन्न कदम उठाए जा रहे हैं।